भक्त-
कान्हा कान्हा कहे मेरा मन, कान्हा जाने कहाँ छुपा
मुरली की आवाज़ सुना दे, इतनी तो कर दे कृपा |
कान्हा-
कान्हा कहे मैं तेरे ह्रदय में, रहता हूँ , रहूँगा सदा
तू मुझको कहाँ पर ढूंढे , तेरे पास ही तो है पता|
भक्त-
कभी गुरु में , कभी पिता में मैंने तुझको देखा है
कभी भाई में , कभी सखा में भेस बदलकर बैठा है|
कान्हा-
कभी गुरु , कभी पिता , कभी भाई और कभी सखा
इन सब अवतारों में, मैं तो तेरे लिए ही बना - मिटा|
भक्त-
मिल गया अब मुझको कान्हा , नहीं, वह तो साथ ही था
जब जब आशीर्वाद मिला था , सर पर उसका हाथ ही था|
कान्हा-
सच्चे भक्त का हाथ थामकर , मैं राह दिखलाता हूँ
धर्मं हो या कर्मभूमि हो , साथ हूँ , सारथी कहलाता हूँ|
बहुत सुंदर .....कान्हा के चरित्र का हर रूप निराला है......जन्माष्टमी की हार्दिक बधाइयाँ ...
जवाब देंहटाएंBAHUT SUNDAR PRASTUTI .PARV KI HARDIK SHUBHKAMNAYEN .
जवाब देंहटाएंBLOG PAHELI NO.1KA PARINAM
janmastmi ke shubh avsar per sunder prastuti..........
जवाब देंहटाएंकान्हा और भक्त में बातचीत, कविता के माध्यम से..वाह :)
जवाब देंहटाएंप्रभावी प्रस्तुति , आभार.
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें.
भक्त और कान्हा का सुन्दर प्रभावी संवाद ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति..
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
आपको बहुत बहुत साधुबाद, आज के समय में भक्ति भरी रचनाएँ कम देखने को मिलती हैं, आप की यह रचना काफी अच्छी है, संबाद शैली काफी अच्छी है |
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